लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण

बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2652
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण

अध्याय - 2

अभिज्ञानशाकुन्तलम् (अंक 1 से 2)

अनुवाद एवं टिप्पणी

प्रश्न- निम्नलिखित पद्यों का सप्रसंग हिन्दी अनुवाद कीजिए तथा टिप्पणी लिखिए -

या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या य होत्री
ये द्वे कालं विधत्तंः, श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः,
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनु भिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः॥ 1॥

प्रसंग - प्रस्तुत पद्य विश्वविश्रुत नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रथम अंक से उद्धृत किया गया है। इसके प्रणेता कविकुलकमलविकर महाकवि कालिदास हैं। इस श्लोक में नान्दी पाठ के द्वारा भगवान् शिव की स्तुति की गयी है।

हिन्दी अनुवाद - जो सृष्टिकर्ता की सर्वप्रथम रचना (जलमयी) हैं, जो (अग्निमयी) विधिपूर्वक हवन की गई (अग्नि में डाली गयी) हवि को वहन करती है (देवताओं के पास पहुँचाती है) जो (यजमानरूपमूति) हवनकर्त्री है, जो (सूर्य और चन्द्ररूपी) दो मूर्तियाँ काल (समय) का विधान करती हैं, श्रवणेन्द्रिय के विषय स्वरूप शब्द गुणवाली जो आकाशरूपी (मूर्ति) सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित है, जिस (भूमिरूपी मूर्ति) को (विद्वान् लोग) सम्पूर्ण बीजों का कारण कहते हैं और जिस (पवनरूपीमूर्ति) से सभी प्राणी से युक्त है उन प्रत्यक्ष आठ मूर्तियों से मुक्त शिव आप सभी की रक्षा करें॥1॥

टिप्पणी - सृष्टिः - सृज + क्तिन्। स्रष्टुः - सृज + तृच् (षष्ठी एक.)। आदि + यत् (य) + टाप् (आ) आद्या। विधि - विधा + कि। हुतम् - ह + क्त। होत्री हु + तृच् (तृ) ङीप्। श्रुतिविषयगुणा - श्रुतेः विषयमः गुणः यस्याः सा (बहुब्रीहि)। श्रुति - श्रु + क्तिन्। वि + सि अच् (अ) = विषय। स्थिता - स्था + क्त + टाप् (आ)। व्याप्य - वि + आप् + क्त्वा - ल्यप्। प्रकृति प्र + कृ + क्तिन् (ति)। प्राणिनः प्राण + इनि। प्रत्यक्षाभिः - अक्ष्णः प्रति प्रति + अक्षि + अच्। प्रपन्नः - प्र + पद् + क्त (त)। सृष्टुः - सृष्टिः, 'वहति' हुतम् 'प्राणि प्राणेति', भिरभिरिति में छेकानुप्रास और सब वाक्यों में वृत्त्यनुप्रास है। समासोक्ति तथा परिकरालंकार की भी व्यजना है। यहाँ प्रसादगुण है जिसका लक्षण इस प्रकार है "चित्तं व्याप्नोति यः क्षिप्रं शुष्केन्धनमिवानलः। स प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च।" वैदर्भी रीति भी है। लक्षण अवृत्तिरल्पवृतिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते॥' नाटक की निर्विघ्न समाप्ति के लिए कविकुलगुरू कालिदास सर्वप्रथम नान्दी पाठ प्रस्तुत करते हैं। सुष्टुः आद्या सृष्टिः जो विद्या की सर्वप्रथम सृष्टि है, जिसे जलरूप सृष्टि कहते हैं। वहति विधिहुतयम् - जो विधिपूर्वक हवन की गयी होगी है तथा हवि को देवताओं तक पहुँचाती है अर्थात् अग्नि। या च होत्री - यज्ञ करते समय यजमान को शिव का अंश माना जाता है। रघुवंश में कालिदास ने कहा है - "यथा च वृत्तान्तमिमं सदोगतस्त्रिलोचनैकांशतया दुरासदः। कालं विधत्तः जो दो समयों का विभाजन करती है अर्थात् सूर्य और चन्द्रमा श्रुतिविषयगुणा श्रुति अर्थात् कर्ण का विषय शब्द है गुण जिसका अर्थात् आकाश आकाशस्य तु विज्ञेयः शब्दों वैशेषिको गुणः - विश्वनाथ। सर्वबीजप्रकृतिः - जिसे समस्तं बीजों का संग्रह कहते हैं अर्थात् पृथ्वी। मनुस्मृति में कहा गया है कि इयं हि भूमिः भूतानां शाश्वती योनिरुच्यते। प्राणिनः प्राणवन्तः - जिसके द्वारा प्राणी प्राणयुक्त है अर्थात् वायु। प्रत्यक्षाभिः = प्रत्यक्ष |

अक्षाणि इन्द्रियाणि प्रतिगता प्रत्यक्षाः। अष्टामि आठ मूर्तियों से युक्त भगवान् शिव आपकी रक्षा करें। जैसाकि विष्णुपुराण में कहा गया है कि सूर्यो जलं मही वहिनर्वायुराकाशमेव च। या सृष्टिः स्रष्टुराद्या के द्वारा कथावस्तु की सूचना दी गयी है। ईशः राजा दुष्यन्त आप सबकी रक्षा करें। स्मृतियों में राजा को आठ लोकपालों के अंशों से युक्त बतलाया गया है "अष्टाभिर्लोकपालानां मात्रभिनिर्मितों नृपः।' इसमें स्रग्धरा छन्द है।

2
ग्रीवाभङ्गाभिरामं मुहुरनुपतति स्यन्दने बद्धदृष्टिः,
पश्चार्धेन प्रविष्टः शरपतनभयादभूयसा पूर्वकायम्।
दभैरर्धावलीढैः श्रमविवृतमुखभ्रशिभिः कीर्णवर्त्मा
पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुर्व्यां प्रयाति॥ 

प्रसंग - प्रस्तुत पद्य में मृगयाव्यसनी राजा दुष्यन्त मृग के विषय में अपने सारथी से इस प्रकार कहते हैं।

हिन्दी अनुवाद - देखो। (यह अब भी) पीछा करते हुए (हमारे रथ परं) गर्दन को मोड़ लेने के कारण सुन्दर लगने वाला पुनः पुनः दृष्टि को डालता हुआ बाण के लगने के भय से अपने अधिकतर पिछले भाग को पूर्व भाग की ओर समेटे रहेन से थकावट के कारण खुले मुँह से गिरते हुए आधे चबाये हुए कुशों से मार्ग को व्याप्त कर देने वाला (यह मृग) अत्यधिक ऊंचे से कूदने के कारण नभ में अधिक और पृथ्वी पर कम दौड़ा रहा है।

टिप्पणी - आकृष्टाः आ + कृष + क्त। ग्रीवाङ्गभिरामम् - ग्रीवायाः भङ्गेन अभिरामम् 'तत्पुरुष'। अभिराम अधि + रम् + घञ्। अनुपतति अनु + पत् + शत् + सप्तमी एकवचन। स्यन्दने - स्यन्दते = धावतीति - स्यन्द् + युच्।

बद्धदृष्टि: - बद्धा दृष्टिः येन सः (बहुव्रीहि)। दृष्टि दृश् + क्तिन्। प्रविष्टः प्र + विश् + क्त। शरपतनभयात् - शरस्य + पतनभयात् (षष्ठी तत्पुरुष)। भूयसा - बहु + ईयसुन् एकवचन। पूर्वकायम् - पूर्वकायस्य = पूर्वकायः तम्। अवलीढ - लव + लिह + क्त। तृतीया। विवृत - वि + वृ + क्त भ्रंशि-भि भ्रंश + णिन् (इन्)। कीर्णवर्त्मा-कीर्णवर्त्म यस्य सः बहुव्रीहि। कीर्ण - कृ + क्त। उढग्रप्लुतत्वात् उदंग्र प्लुतं यस्य सः तस्य भावः तस्मात्। वियति - व + इण् शतृ। प्रयात्रि- प्र + या धातु लट्लकार प्र. पु. ए. व.। इस श्लोक में स्वाभावोक्ति अलंङ्कार की स्थिति है। पश्चार्थेन प्रविष्टः में गम्योत्प्रेक्षा है रसनाकाव्यलिङ्ग भी है। पाचाली रीति तथा ओजोगुण है। स्रग्धरा छन्द भी है।

3
कृष्णसारे ददच्चक्षुस्त्वयि चाधिज्यकार्मुके।
मृगानुसारिणंसाक्षात्पश्यामीवपिनाकिनम्॥

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में राजा दुष्यन्त काले हिरण को देखकर आश्चर्यचकित होकर उसके विषय में कहते हैं।

हिन्दी अनुवाद - राजा दुष्यन्त जिस समय वन में भ्रमण कर रहे थे तभी अचानक काले (साँवले) रंग के हिरण पर उनकी दृष्टि पड़ी। उसे देखकर वह इतना भावुक हो गये कि आश्चर्यपूर्वक उसे देखने लगे। ऐसा लग रहा था कि इस हिरण के वेश में साक्षात् पिनाकधारी भगवान 'शिव' स्वयं अचम्भित होते हुए अपने मंत्री से कहा क्योंकि साँवले रंग हिरण उन्होंने पहली बार इतना सुन्दर देखा था।

टिप्पणी - इस श्लोक में विशेष उत्प्रेक्षा अलंकार है तथा अनुष्टुप छन्द है। प्रत्यक्षभिः अक्षणः प्रति, प्रति + अक्षि + अच्। प्रपन्नः प्र + पदं + क्त (त) वैदर्भी रीति है। स प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च।'

4
यदालोके सूक्ष्मं ब्रजति सहसा तद्विपुलतां
यदद्धा विच्छिन्नं भवति कृतसंधानमिव तत्
प्रकृत्या यद्वक्रं तदपि समरेखं नययो
र्न मे दूरे किचत् क्षणमपि न पार्श्वे रथजवात्॥

प्रसंग - प्रस्तुत पद्य में राजा दुष्यन्त सारथी से अपने अश्वों के वेग का वर्णन कर रहे हैं।

हिन्दी अनुवाद - रथ के वेग से जो वस्तु देखने में सूक्ष्म (लगती है वह अचानक ही विस्तृत रूप में हो जाती है जो वस्तु वस्तुतः टूटी हुई हो (विभक्त) है, वह जुड़ी हुई सी हो जाती है। जो वस्तु देखने में टेढ़ी लगती है वह भी आंखों के लिए सीधी हो जाती है। क्षण भर के लिए कोई भी वस्तु न तो हमसे दूर है और न ही मेरे पास में है।

टिप्पणी - अतीत्य - अति + इ + क्त्वा - ल्यप्। हरितो हरींश्च - यहाँ हरित् शब्द का अर्थ है (सूर्य के घोड़े' तथा हरि शब्द का अर्थ है इन्द्र के घोड़े। निरुक्त में भी कहा गया है हरी इन्द्रस्य हरित आदित्यस्य। वाजी - वाज + इनि। आलोक - आ + लोक + घञ्। विपुलताम् - विपुल + तल् + टाप् विपुलता, ताम्। विच्छिन्नम् - वि + छिद + क्त। कृतसन्धानम् - कृतं सन्धानं यस्य तत् (बहु.) कृत - कृ + क्त। सन्धान - सम् + धा + ल्युट्। समरेखम् - समा रेखा यस्य तत् (बहु0)। रथजवात् - रथस्य + जवः + तस्मात्। इस श्लोक में रथ की तेज गति का स्वाभाविक वर्णन है, अतएव स्वभावोक्ति अलङ्कार है। सूक्ष्म का विशाल हो जाना तथा वक्र का सीधा होना आदि। विरोध की प्रतीति होने से विरोधाभास अलङ्कार हैं। 'कृतसन्धानमिव' में उत्प्रेक्षा। तदपि 'समरेखम्' में गम्योत्प्रेक्षा तथा रथजवात् में हेतु अलङ्कार है। 'कृष्णसारे - से लेकर यहा तक 'भूषण' नामक नाट्यभूषण है। प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति तथा शिखरिणी छन्द है।

5.
नीवाराः शुकगर्भर्कोटरमुखभ्रष्टास्तरूणामधः
प्रस्निग्धाः कचिदिङ् गुदीफलभिदः सूच्यन्तवोपला।
विश्वासोपगमादभिन्नगतयः शब्दं सहन्ते मृगा -
स्तोयाधारपथाश्चयवल्कलशिखानिष्यन्दरेखाङ्किताः।

प्रसंग - राजा दुष्यन्त सारथी से कह रहे हैं कि यह तपोवन की सीमा है।

हिन्दी अनुवाद - (कहीं पर) वृक्षों के नीचे शुकों से युक्त कोटरों के अग्र भाग से गिरे हुए नीवार (दिखायी पड़ रहे हैं) कहीं पर इंगुदी के फलों को तोड़ने वाले चिकने पत्थर दिखाई दे रहे हैं, (कहीं) विश्वास के उत्पन्न हो जाने के कारण एक जैसी गति वाले (भय के कारण मृगों की गति में परिवर्तन हो जाता है परन्तु आश्रम में किसी प्रकार का भय नहीं है अतएव विश्वास के साथ हिरण एक ही गति में चल रहे हैं), हिरण (रथ के) शब्द को सुन रहे हैं और (कहीं पर) जलाशयों की ओर जाने वाले मार्ग वल्कलवस्त्रों के अग्रभाग से टपकती हुई जल की रेखाओं से चिह्नित (दिखाई दे रहे हैं)।

टिप्पणी - नीवारा: - नि + वृ + घञ्। नीवार एक प्रकार का धान्य है, यह वनों से उगता है। शुकगर्भकोटरमुखभ्रष्टाः - शुक गर्भे येषां ते = शुकगर्भा, तेषां कोटराणां मुखेभ्य भ्रष्टाः (बहुब्रीहिगर्भकतत्पुरुष)। भ्रष्टः - भ्रंश + क्त। प्रस्निग्धाः - प्र + स्निह् + क्त। इगुंदी - इगुंदी + फल + भिद + क्विप्। विश्वास - वि + श्वस् + घञ्। गतिः + गम् + क्तिन्। तोयाधारपथाः तोयानाम् अधाराः, तेषां पन्थानः (तत्पुरुष)। निष्यन्द - नि + स्यन्द् + घञ्। इस श्लोक में आश्रम का स्वाभाविक वर्णन किया गया है, अतः यहाँ स्वाभावोक्ति अलङ्कार है। पद्य के अन्तिम चरण में स्थित च पद से तीन चरणों के तीन वाक्यों का समुच्चय होने से समुच्चय अलङ्कार है। यहाँ पर आश्रम का अनुमान होने से अनुमान अलङ्कार है इसके अतिरिक्त काव्यलिङ्ग भी है। प्रसादगुण तथा पाञ्चाली रीति है। शार्दूलविक्रीडित छन्द है।

6.
शान्तमिदमात्रमपदं स्फुरति च बाहुः कुतः फलमिहाऽस्य?

प्रसंग - दुष्यन्त इस शान्त स्थल में होने वाले शुभ शकुन पर विचार करता है। हिन्दी अनुवाद - यह आश्रय शान्त स्थल है तथा मेरा दाहिना हाँथ स्पन्दित (फड़क रहा है, यहाँ पर इसका परिणाम कहाँ? अर्थात् भावी घटनाओं के लिए सर्वत्रद्वार प्रयास बन जाते हैं इस प्रकार दुष्यन्त घटनाओं पर विचार करता है।

टिप्पणी - पुरोदृश्यमानम्, आश्रमवदम् = आश्रमस्थानम्, शान्तं = शमप्रधानं, बाहु = हस्त, च स्फुरित = स्पदन्दते, इह = अस्मिन तपोवने, अस्य = भुजस्फुरणस्य, फलम् = साफल्यम्, कुतः = कथं, सम्भवति, अथवा = कि वा मितव्यानाम् = अवश्यमभाविनाम् सर्वत्र सर्वप्रयेशेषु , द्वाराणि = उपायाः, भवन्ति = जायन्ते। अत्र समान्येन विशेषस्य समर्थनात् अर्थातरन्यासः। आक्षेपालंकारश्च आर्या छन्दः।

7.
इदमुपहितसूक्ष्मग्रन्थिना स्कन्धदेसे,
स्तनयुगपरिणाहाच्छादिना वल्कलेन।
वपुरभिनवमस्याः पुष्यति स्वा न शोभां
कुसुममिवपिनद्धंपाण्डुपत्रोदरेण॥

प्रसंग - राजा दुष्यन्त कह रहे हैं कि प्रियंवदा ठीक कह रही है।

हिन्दी अनुवाद - कन्धे पर लगायी गयी सूक्ष्म (छोटी) गांठ वाले तथा स्तनों के विस्तार के आकार को ढक लेने वाले वल्कल वस्त्र से इसका (इस शकुन्तला का) यह नया (यौवनयुक्त) शरीर, पीले पत्तों के मध्य भाग से ढके हुए फूल के समान धनी शोभा को धारण नहीं कर रहा है अर्थात् कर रहा है।

टिप्पणी - उपहितसूक्ष्मग्रन्थिना - उपहितः सूक्ष्मः ग्रन्थिः यस्य तेन (बहु.)। ग्रन्थिः - ग्रन्थते - ग्रन्थ + इनि। स्कन्ध - स्कन्धस्य देशे (ष. त.)। परिणाहः परिनयतेऽनेन इति - परि + न + घञ्। परिणाहो विशालता इत्यमरः शोभा शोभति शुभ + अच्। शोभाकान्तिर्द्युतिश्छिविः' इत्यमरः। पिनद्धम् अपि। नह् + क्त। अइ के अकार का लोप पण्डु पत्रोदरेण पाण्डुपत्राणाम होने से यहाँ यह श्लोक प्रस्तुत किया गया है। यहाँ पर उपमाअलङ्कार है। लक्षण साम्यं वाच्यम वैधर्म्यं वाक्यैक्य उपमाद्वयोः। प्रसादगुण तथा वैदर्भी रीति। मालिनी छन्द | लक्षण "ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः।'

8.
सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं
मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मीं तनोति।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्॥

प्रसंग - निसर्गतः रमणीय शकुन्तला को देखकर राजा दुष्यन्त इस प्रकार कह रहे हैं।

हिन्दी अनुवाद - सिवाल से अनुविद्ध (आच्छादित) कमल भी सुन्दर लगता है। मलिन (कान्तिरहित) कलंक भी चन्द्रमा की शोभा को बढ़ाता है। यह कृशाङ्गी (शकुन्तला) वल्कलवस्त्रों से भी अत्यन्त सुन्दर लग रही है। क्योंकि सुन्दर आकृतियों के लिए कौन-सी वस्तु आभूषण (अलंङ्कार) नहीं होती है।

टिप्पणी - अननुरूपम्न - अनुरूपम् इति (नञ् तत्पुरुष)। अलङ्कारश्रियम् - अलंक्रियतेऽनेन इति अलंकारः तस्य श्रियम् (षष्ठी तत्पुरुष)। श्रियम् - श्रियम् + श्रि + क्विप्। सरसिजम् - सरसि - जातमिति - सरसि + ड सप्तम्यां। जनेर्ड से ड' प्रत्यय। अनुविद्धम् - अनु + व्यध् + क्त। रम्यम् - रम्यतेऽत्र रम् + यत् हिमांशोः - हिमा। मनोज्ञ - मनस + ज्ञा + क, तन्वी - नायिका का संस्कृत साहित्य में वर्णन हुआ है। मधुराणां - मधु। माधुर्यं - रीति - मधु + रा + क। मण्डनम् - मण्ड् + ल्युट। किमिव हि यह प्रसिद्ध सूक्त रत्न है। यहाँ नायिकाओं में रहने वाले सात्त्विक अलंकारों में से माधुर्य नामक अलंङ्कार है। प्रसिद्ध नामक नाटय लक्षण भी है। यहाँ शकुन्तला के लावण्य की व्यञ्जना है। दृष्टान्तशतक में भी कहा गया है स्वभाव्ट- सुन्दरं वस्तु न संस्कारमपेक्षते। इस श्लोक में 'तन्वी' उपमेय तथा सरसिजम् एवं हिमांशेर्लक्ष्म उपमान है। इन दोनों के एक ही सौन्दर्य रूप सामान्य धर्म का पृथक-पृथक वाक्यों द्वारा निर्देश दिया गया है, अतः प्रतिवस्तूपमा अलंङ्कार है। चतुर्थ चरण में सामान्य से विशेष का कथन होने से अर्थान्तरन्यास, अलंङ्कार है। प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति। कतिपय आचार्य यहाँ माधुर्य गुण तथा लाटी रीति मानते हैं, मालिनी छन्द है।

9.
वाचं न मिश्रयति यद्यपि मचवचोभिः
कर्णं ददात्यभिमुखं मयि भाषमाणे
कामं न तिष्ठति मदाननसम्मुखीना
भूयिष्ठमन्यविषया न तु दृष्टिरस्याः॥

प्रसंग - राजा दुष्यन्त शकुन्तला को देखकर अपने मन में विचार करते हैं क्या यह भी हम पर अनुरक्त है? अथवा मेरी इच्छा को अवसर प्राप्त हो गया। क्योंकि -

हिन्दी अनुवाद - यद्यपि यह शकुन्तला मेरे वचन रूपवाणी के साथ अपनी वाणी को नहीं मिलाती है। अर्थात् मेरे साथ बातचीत नहीं करती है। (फिर भी) मेरे बोलने पर मेरी तरफ ही कान लगाये रखती है, भले ही मेरे मुख की ओर मुख करके नहीं बैठती है किन्तु इसकी दृष्टि प्राय: दूसरे विषयों की ओर नहीं है।

टिप्पणी - वाचम् - उच्यते इति वच् परिभाषणे धातु से 'किवचि' सूत्र से क्विप् प्रत्यय, दीर्घ तथा सम्प्रसारण का अभाव। मिश्रयति - मिश्र + णिच् + लटलकार प्र. पु. ए. व.। अभिभाषमाणे अभि + भाष् + शानच्। मदाननस म्मुखीना - मदाननस्य सम्मुखीना (ष त.)। दृष्टि दृश् + क्तिन्। यहाँ पर नायिका का विलास नामक स्वभावज अलंकार है। इस श्लोक में मुग्धा नायिका शकुन्तला की अनुरागेङ्गित (अनुराग की चेष्टायें) हैं। यहाँ समुच्चय अलंकार है। छेकानुप्रास तथा वृत्त्यनुप्रास भी है। प्रसादगुण, वैदर्भी रीति है तथा वसन्ततिलका छन्द है।

10.
तीव्राघातप्रतिहततरुस्कन्धलग्नैकदन्तः
पादाकृष्टव्रततिवलयासङ्गसञ्जापताशः।
मूर्ती विघ्नस्तपस इव नो भिन्नसारङ्गयूथो
धर्मारण्यं प्रविशति गजः स्यन्दनालोकभीतः।

प्रसंग - नेपथ्य में कहा जा रहा है कि मृगयाविहारी राजा दुष्यन्त समीप में ही है, इसलिए तपोवन के जीवों की रक्षा के लिए आप लोग एकत्र हो जाइए।

हिन्दी अनुवाद - रथ को देखने से अत्यन्त भयभीत तीव्र आघात से तोड़े गये वृक्ष की शाखा में जिसका एक दाँत फंसा हुआ है, पैरों से खींचते हुए लता समूहों के लिपटने से जिसके (पैरों में) बेड़ी (पाश) सी पड़ गयी है तथा जिसने मृगों के झुण्ड को तहस-नहस कर दिया है। (इस प्रकार का) वह हाथी हम लोगों की तपस्या का मानों शरीरधारी विघ्नरूप (समान) तपोवन में प्रवेश कर रहा है।

टिप्पणी - स्यन्दनालोकभीतः स्यन्दनस्य आलोकः = स्यन्दनालोकः, तस्मात् भीतः भी + क्त। आघात आ + न् + घक्त। आकृष्ट आ + कृष् + क्त। आसङ्ग - आ + सञ्जु + घञ्। मूर्तः - मूर्च्छ + क्त। शरीरधारी। भिन्नसारंगयूथः भिन्नानि सारङ्गयूथानि येन सः (बहुव्रीहि)। सारङ्गसार + गम् + खच्। यहाँ पर भयानक रस है। गजगत भय स्थायि भाव, दुष्यन्त की सेना के रथ का अवलोकन विभाव तथा आस-पास देखना एवं भागना आदि व्यभिचारीभाव है। उत्प्रेक्षा, परिकर तथा अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार भी हैं। ओजोगुण तथा पाञ्चालीरीति है।

11.
अनवरतधनुर्ज्यास्फालनक्ररपूर्वं
रविकिरणसहिष्णुस्वेदलेशैरभिन्नम्।
अपचितमपि गात्रं व्यायतत्वादलक्ष्यं
गिरिचर इव नागः प्राणसारं बिभर्ति ||

प्रसंग - सेनापति राजा को देखकर कहता है कि यद्यपि शिकार में दोष है परन्तु महाराज के लिए वह केवल गुण ही हो गई है। क्योंकि-

हिन्दी अनुवाद - पर्वतचारी (पर्वत पर विचरण करने वाले) हाथी के समान (देव) इस प्रकार शरीर को धारण किये हुए हैं जिसका अगला भाग लगातार धनुष की प्रत्यञ्चा के खींचने से जिसका अग्रभाग कठोर हो गया है। (जो गजपक्ष में निरन्तर प्रियाल वृक्ष को खींचने से जिसका अग्रभाग कठोर हो गया है।) जो सूर्य की किरणों को सहन करने वाला तथा पसीने की बूँदों से रहित हैं, कृश होने पर भी पुष्टता के कारण (कृश) नहीं दिखाई देता है, और जो बल युक्त शरीर को धारण किये हैं।

टिप्पणी - दृष्टदोषा-दृष्टाः दोषाः यस्यां सा (बहुब्रीहि) अनवरतधनुर्ज्यास्फलनक्रूरपूर्वम - अनवरतं धनुषः ज्यायाः आस्फालने क्रूर: पूर्व : यस्य तत् (बहुब्रीहि)। रविकिकरणसहिष्णु - रवेः किरणानां सहिष्णु (तत्पुरुष)। सह् + इष्णुच = अपचितम् अप + चि + क्त। व्यात्तत्वात् - वि + आ + क्त = व्यायता + त्वल् गिरिचरः - गिरिषु चरतीति - गिरि + र् + ट। प्राणसारम् - प्राणः सारः यस्मिन् तत् (बहुव्रीहि)। अथवा प्राणस्य सारम् (तत्पुरुष)। प्रस्तुत श्लोक में आये हुए विशेषण द्वयर्थक हैं, अतः श्लेष अलंकार है। गिरिचर इव नागः' में उपमा है। प्रसाद गुण, तथा पाञ्चाली रीति है। मालिनी छन्द है।

12.
मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युथायोग्यं वपुः
सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चितं भयक्रोधयोः।
उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले।
मिथ्यैव व्यसनं वदन्त मृगयामीदृग् विनोदः कृतः।

प्रसंग - सेनापति धीरे से कहता है कि मित्र, तुम अपने आग्रह पर दृढ़ रहना मैं महाराज की इच्छा का अनुसरण करूँगा। प्रकट रूप में इस मूर्ख को बकने दीजिए। इस विषय में तो आप हीं प्रमाण है।

हिन्दी अनुवाद - (मृगया से) शरीर चर्बी कम हो जाने के कारण पतले उदर वाला हल्का और चुस्त उत्साह (उद्यम) करने के योग्य हो जाता है। प्रणियों के भय और क्रोध में विकारयुक्त मन का भी परिज्ञान हो जाता है। धर्नुधारियों के लिए यह उत्कर्ष अत्यन्त ही गौरव की बात है, कि चंचल लक्ष्य पर भी (उनके) बाण सफल हो जाते हैं, मृगया को लोग व्यर्थ में ही व्यसन कहते हैं, ऐसा मनोरंजन अन्यत्र कहाँ? 

टिप्पणी - गृहीतश्वापदम् - गृहीताः श्वपदा यत्र तथोक्तम् (बहुव्रीहिं)। मन्दोत्साहः - मन्दः उत्साहः यस्य सः (बहुव्रीहि। मृगयापवादिना - मृगयाम् अपवदतीति मृगयम् + अप + वद् + णिनि। वैधेयः - विधये विधानम्। उत्थानयोग्यम् - उत्थानस्य योग्यम (तत्पुरुष)। उत्थान + उत + स्था + ल्युट् राजा दुष्यन्त के चिन्तानुवर्तन के अलङ्कार है प्रसादगुण तथा वैदर्भी रीति है। शर्दूलविक्रीडित छन्द है।

13.
गाहन्तां महिषा निपानसलिलं श्रृङ्गैर्मुहुस्ताडितं
छायाबद्धकदम्बकं मृगकुलं रोमन्थमभ्यस्यतु।
विश्रब्धं क्रियतां वराहपतिभिर्मुस्ताक्षतिः पल्वले
विश्रामं लभतामिदं च शिथिलज्याबन्धमस्मदधनुः॥

प्रसंग - राजा दुष्यन्त सेनापति से कहते हैं- भद्र सेनापति हम लोग आश्रम के समीप रुके हुए हैं। अतः तुम्हारे कथन को स्वीकार नहीं करते। आज तो -

हिन्दी अनुवाद - भैंसे सीगों से बार बार ताडित तालाब (जलाशय) के जल में स्नान करें। छाया में झुण्ड बनाकर बैठा हुआ हिरनों का समूह जुगाली का अभ्यास करें। बड़े-बड़े शूकर भय रहित होकर तलैयों में नागरमोथा उखाड़े और हमारा यह धनुष भी शिथिल प्रत्यञ्जा वाला होकर विश्राम प्राप्त करें।

टिप्पणी - प्रकृति - प्र + कृ + क्तिन्। आपन्नः आ + पद् + क्त। आहिण्डमानः - आ + हिण्ड + शानच्। नरनासिकालोलुपस्य नाराणां नासिकायाः लोलुलस्य (तत्पुरुष)। जीर्णऋक्षस्य जीर्णः गृहक्षः तम्य (कर्मधारय)। छायाबद्धकदम्बकम् छायायं वद्धं कदम्बकं येन तत् ता दृशम्। मृगकुलम् मृगाणां कुलम् (तत्पुरुष)। विश्रामम् 'वि + श्रम + घञ्। शिथिलज्याबन्धम् शिथिलः ज्यायाः बन्धः यस्मिन् तत् (बहुब्रीहि)। श्लोक के चतुर चरण में 'च' के प्रयोग से समुच्च अलंङ्कार है। महिष, मृगों तथा वाराह के स्वभाव का वर्णन होने से स्वभावोक्ति अलंङ्कार है। प्रसादगुण तथा वैदर्भी रीति है। शार्दूलविक्रीडित छन्द भी है।

14.
चित्रे निवेश्य परिकल्पितसत्त्वयोगो
रूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता नु।
स्त्रीरत्नसृष्टिरपरा प्रतिभाति सा मे
धातुर्विभुत्वमनुडचिन्त्यवपुश्चतपस्याः॥

प्रसंग - राजा दुष्यन्त शकुन्तला के सुन्दर रूप को लक्ष्य कर विदूषक से कहते हैं कि मित्र, अधिक क्या कहें?

हिन्दी अनुवाद - विधाता की सामर्थ्य (सृष्टिशक्ति) और (शकुन्तला) के शरीर पर विचार करके मुझे वह विधाता के द्वारा चित्र पर बनाकर (उसमें) प्राणों का सञ्चार कर मानों मन के द्वारा सौन्दर्य समूह से निर्मित अद्वितीय (विलक्षण) स्त्रीरत्न की सृष्टि लग रही है।

टिप्पणी - चित्रे - चित्र में। चिनोति, चीयते वा इति चि + त्र। निवेश्य नि + विश् + णिच् + क्तवा + ल्यप्। विधिना वि + धा + कि। सृष्टि सृज + क्तिन्। अपरा न विद्यते परा यस्याः सा (बहुब्रीहि)। विभुत्वम् - विभु + त्वल्। अनुचिन्त्य अनु + चिन्त + क्तवा + ल्यप्। यह श्लोक शकुन्तला के सौन्दर्य का व्यञ्जक हैं। यहाँ 'नु' के द्वारा सन्देह की प्रतीत होने से सन्देह अलंङ्कार हैं। कुछ लोगों का अभिमत है कि 'नु' शब्द वितर्कवाची है अतः उत्प्रेक्षालंकार है, 'स्त्रीरत्नष्टिरपरा' में अतिशयोक्ति है। चौथा चरण प्रथम तीन चरणों का हेतु होने से काव्यलिङ्ग है। प्रसादगुण तथा वैदर्भी रीति है वसन्ततिलका छन्द है।

15.
अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररुहै
रनाविद्धं रत्नं मधु नवमनास्वादिरतसम्।
अखण्डं पुण्यानां फलमिव च तदरूपमनघं
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः॥

प्रसंग - राजा दुष्यन्त विदूषक से कहते हैं कि शकुन्तला के विषय में मेरे मन में यह भाव है।

हिन्दी अनुवाद - उसका (उस शकुन्तला का) निष्कलङ्क सौन्दर्य (किसी के भी द्वारा) न सूँघे गये फूल के समान, नाखूनों से न बिधे (छेदे गये) किसलय के समान, न बांधे गये रत्न के समान, जिसके रस का आस्वादन नहीं किया गया है ऐसे नये ताजे शहद (मधु) के समान और पुण्यों के अखण्ड फल के समान हैं। न जाने विधाता इस संसार में किसे उसको भोगने वाला बनायेगा।

टिप्पणी - प्रत्यादेशः निराकरण, तिरस्कार, प्रति + आ + दिश् + घञ्। रूपवतीनाम् - रूप + मतुप् म को व तथा ङीप्। अनाघ्रातम् न + आघ्रा - तम् (नञ् तत्पुरुष)। आ + घ्रा + क्त। अलूनम् न लूनमिति अलूनम् लू + क्त = लून। अनाविद्धम् - जिसमें छेद नहीं किया। आविद्धम् - आ + व्यध् + क्त। अनास्वादितरसम् न आस्वादितः रसः सस्य तत् (बहुव्रीहि)। 'अनाघ्रातं पुष्पम् आदि विशेषताओं के द्वारा क्रमशः शकुन्तला की परिभोगयोग्यता, कान्तिमत्ता, मुग्धता हृद्यता तथा उत्तमजनाभिलषणीयता ध्वनित हो रही है। यहाँ शोभा नामक नायिका का अलङ्कार है। शकुन्तला के गुणों के वर्णन के कारण यहाँ गुण कीर्तन नामक नाटय लक्षण है कई उपमाओं के होने से मालोपमालङ्कार है। अनाघ्रात आदि विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर अलङ्कार है। माधुर्यगुण, वैदर्भी रीति। कतिपय आचार्य प्रसादगुण मानते हैं। प्रस्तुत पद्य में शिखरिणी छन्द है।

16.
कृत्ययोर्भिन्नदेशत्वाद् द्वैधीभवति में मनः।
पुरः प्रतिहतं शैले स्रोत स्रोतोववो यथा॥

प्रसंग - मन को दो स्थानों पर एक साथ होने के कारण विचलित बताया गया है।

हिन्दी अनुवाद - राजा दुष्यन्त यह सोचता है कि एक साथ दो कार्य एक तो हस्तिनापुर का राज्य जहाँ से बुलाया गया है एक तो शकुन्तला को प्राप्त करने में दोनों कार्य एक साथ हो गये हैं। जोकि भिन्न - निन्न स्थानों पर है। इसलिए मेरा मन पर्वत से टकराये हुए नदी के प्रवाह के समान मेरा मन दुविधा में पड़ गया है।

टिप्पणी - कृत्ययो-कार्ययोः भिन्नदेशत्वात् नानादेशस्थत्वात् प्रतिहतमअरुद्धम्, श्रोतोवहः = नद्याः, स्रोतः = प्रवाह, द्वैधीभवति द्विधायम् चेतः पुरः पर्वते प्रतिहतं नद्या स्रोतः यथा द्वैधी भवति। अस्मिन् श्लोके उपमालंकारः। अनुष्टुप् छन्दः।

17.
इदं किलाव्याजमनोहरं वपुस्
तपः क्षमं साधयितुं य इच्छति।
ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया
शमीलतांछेत्तुमृषिर्व्यवस्यति॥

प्रसंग - राजा दुष्यन्त शकुन्तला के विषय में कहते हैं कि यह वही कण्व की पुत्री शकुन्तला है। निश्चय ही महर्षि कण्व अविवेकी हैं।

हिन्दी अनुवाद - जो ऋषि (कण्व) प्रकृति (स्वभाव) से ही मनोहर इस शकुन्तला के शरीर को तप के योग्य बनाना चाहता है, वह निश्चय ही नीलकमल के पत्ते की धार से शमीलता को काटने का प्रयास कर रहा है।

टिप्पणी - अव्याजमनोहरम् अव्याजेन मनोहरम् (तृ. त.)। व्याज वि + अज् + घञ्। नीलोत्पलपत्रधारया - नीलोत्पलस्य पत्रधारया (ष त)। शमीलताम् शम्याः लतमाम् (ष त)। छेत्तुम छिद् + तुमन। यहाँ अभिप्राय तथा विभावना नामक अलंकार हैं। वंशस्थ नामक छन्द है। लक्षण जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ: प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति है।

18.
यतो यतः षट्चरणोऽभिवर्तते
ततस्ततः प्रेरितवामलोचना।
विवर्तितभूरियमद्य शिक्षते
भयादकामाऽपिहिदृष्टिविभ्रम्।

प्रसंग - शकुन्तला की भ्रमर को हटाने की चेष्टा की प्रशंसा करते हुए राजा दुष्यन्त कहता है।

हिन्दी अनुवाद - क्योंकि जिधर - जिधर (यह) भ्रमर जाता है इधर-उधर सुन्दर नेत्रों को घुमाने वाली और भौंहों को तानने वाली यह (शकुन्तला) भय के कारण काम भावना के बिना भी आज कटाक्षपात सीख रही है।

टिप्पणी - षट्चरण: - षट् चरणा यस्य सः (बहुब्रीहि)। प्रेरितवामलोचना - प्रेरिते वामे लोचने यया सा (बहुब्रीहि)। वाम -  सुन्दरः वामं सत्यं प्रतीपे च द्रविणे चातिसुन्दरे इति विश्वः। विवर्तितभ्रूः विवर्तिता-भ्रूः यया सा (बहुब्रीहि)। भयात् हेतु के अर्थ में पञ्चमी। दृष्टिविभ्रमम् दृष्टेः विभ्रमम् (तत्पुरुष)। दृष्टि दृश् + क्तिन्। शिक्षते मानों कटाक्षपात सीख रही है के द्वारा प्रतीयमानोत्प्रेक्षा प्रकट हो रही है। कामभावना से रहित भी कटाक्षनिक्षेप सीख रही है। इस प्रकार कारण के बिना भी कार्य के होने से विभावना अलंङ्कार है। लक्षण- विभावना विना हेतुं कार्योत्पत्र्त्यिदुच्यते। प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति। वंशस्थ छन्द।

19.
न नमयितुमधिज्यमस्मि शक्तो
धनुरिदमाहितसायकं मृगेषु।
सहवसतिमुपेत्य यैः प्रियायाः,
कृतइवमुग्धविकलोकितोपदेशः॥

प्रसंग - राजा दुष्यन्त मन में विचार करता है कि यह विदूषक इस प्रकार कह रहा है। मेरा चित्त भी कण्वपुत्री का स्मरण करके शिकार से उदासीन हो रहा है, क्योंकि मैं अब शिकार करने में अक्षम हूँ।

हिन्दी अनवाद - प्रत्यञ्चा चढ़े हुए और बाण से युक्त इस धनुष को मैं उन हरिणों पर झुकाने (चलाने) में समर्थ नहीं हूँ, जिन्होंने प्रियतमा (शकुन्तला) का सहवास को प्राप्त करके मानों उसे भोलेपन से देखने का उपदेश दिया है।

 

टिप्पणी -  नमयितुम नम् + णिच् + तुमुन्। अधिज्यम् अधिगता ज्या यस्मिन् तत् (बहुब्रीहि)। ज्या प्रत्यञ्चा। 'मौर्वी ज्या शिञ्जनी गुण:' इत्यमर:। जिनाति इति - ज्या वयोहानौ धातु से 'अन्येभ्योऽपि' से 'ड' प्रत्यय। शक्तः - शक् + क्त। आहितसायकम् आहितः सायकः यस्मिन् तत् (बहुब्रीहि)। आहितः आ + धा + क्त। सहवसतिम् - सह + वसतिः ताम् (सुपसुपा)। वसतिम् वस् + अति। 'वसतिः स्यात् स्त्रियाँ वासे यामिन्यां च निकेतने' इति मेदिनी। उपेत्य उप + इण् + क्तवा ल्यप्। प्रियायाः प्रीणातीति प्री + क + टापु, ष. ए. व.। मुग्धविलोकितोपदेशः मुग्धानि विलोकितानि = मुग्धनविलोकितानि तेषाम् उपदेशः। मुग्ध मुह् + क्त। उपदेश - उप + दिश् + घञ्। मृगों ने शकुन्तला को मुग्धभाव से देखना सिखलाया है। अतः राजा उन मृगों पर बाण चलाने की इच्छा नहीं करता है। इससे शकुन्तला को भोली-भाली दृष्टि प्रशंसित होती है। इस प्रकार परम्परया उसके मुग्ध सौन्दर्य की व्यञ्जना है, जिस पर राजा दुष्यन्त अनुरक्त है।

श्लोक के पूर्वार्द्ध का उत्तरार्द्ध कारण है, अतः काव्यलिङ अलङ्कार है। 'कृतइब' में उत्प्रेक्षा है। शकुन्तला के नेत्र मृगों के नेत्रों के समान हैं। इस प्रकार की प्रतीति होने से उपमा अलंङ्कार भी ध्वनित हो रहा है। प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति पुष्पिताग्रा छन्द है।

 

20.
शमप्रधानेषु तपोधनेषु,
गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेजः।
स्पर्शानुकूला इव सूर्यकान्ता
स्तदन्यतेजोऽभिभवादवमन्ति॥

प्रसंग - राजा दुष्यन्त कहते हैं कि सैनिकों से कह दो कि वे तपोवन का उपरोध न करें।

हिन्दी अनुवाद - शान्तिप्रधान तपस्वियों में जला देने वाला गुप्त (छिपा हुआ) तेज रहता है। क्योंकि स्पर्श के योग्य सूर्यकान्त मणियों के समान अन्य तेज से तिरस्कृत (अभिभूत) होने पर (ये) उस तेज को प्रकट करते हैं।

टिप्पणी - तपोधनेषु - तपः एव धनं येषां तेषु (बहुब्रीहि)। गूढम् गुह् + क्त दाहात्मकम् = दाहः आत्मा यस्य तत् (बहुब्रीहि)। स्पर्शानुकूलाः- स्पर्शस्य अनुकूलाः (तत्पुरुष)। अन्यतेजोऽभिभवात् = अन्यस्य तेजसा अभिभवात्। (तत्पुरुष)। इसके दो अर्थ होंगे - (क) (तपस्वियों के पक्ष में) दूसरे (राजादि) के तेज से तिरस्कृत होने पर उन तपस्वियों का गुप्त तेज प्रकट हो जाता है, जिस तेज के द्वारा वे अपने शत्रुओं को भस्म कर देते हैं। (ख) (सूर्यकान्त मणि के पक्ष में)। सूर्य के सामने रखे जाने पर सूर्यकान्त मणि भी अपने तेज को प्रकट कर देती हैं। सूर्य के सामने रखे जाने पर सूर्यकान्त नामक मणि से तीक्ष्ण किरणें निकलने लगती हैं। महाकवि भवभूति ने भी लिखा है 'मयूखैरश्रान्तः तपति यदि देवो दिनकरः किमाग्नेयो ग्रावा निकृत एव तेजांसि वसति यहाँ पर श्लेष तथा उपमालंङ्कार है। कोई-कोई 'इव शब्द के स्थान पर "अपि ऐसा मानते हैं" अपि शब्द के रखने से यहाँ वैदर्भीरीति। उपजाति छन्द। लक्षण अनन्तरोदीरितलक्ष् मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः। इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु वदन्ति जातिष्विदमेव नाम।

21.
शुद्धान्तदुर्लभमिदं बपुराश्रमवासिनो यदि जनस्य।
दूरीकृता खलु गुर्णरूद्यानलता बनलताभिः॥

प्रसंग - कविकुल गुरु महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्याकाश के देदीप्यमान भगवान भास्कर हैं वह एक सच्चे पारखी के समान सामाजिक एवं प्राकृतिक विभिन्नताओं का मूल्यांकन अत्यन्त सुन्दरता के साथ करते हैं वह अन्तःपुर में स्थित स्त्रियों का आश्रम में स्थितियों की तुलना करते हुए कहते हैं

हिन्दी अनुवाद - राजा दुष्यन्त वृक्षों की ओट से तपस्वियों के वार्तालाप को सुनते हुए यह विचार करते हैं कि यदि अन्तःपुर में निवास करने वाली स्त्रियों के लिए यह सौन्दर्य या लावण्य दुर्लभ है और आश्रम में स्त्रियाँ सौन्दर्याधिक्य से समस्त सृष्टि को अभिभूत कर रही है तब तो निश्चत रूप से वन की लताओं ने उद्यान में स्थित लताओं को अपने गुणों से तिरस्कृत कर दिया है क्योंकि कृत्रिम सौन्दर्य की अपेक्षा प्राकृतिक सौन्दर्य का लावण्य अत्यधिक आकर्षित करने वाला होता है।

टिप्पणी - शुद्धान्तदुर्लभम् शुद्धा उपधाशुद्धा रक्षका अन्ते समीपेऽस्येति शुद्धान्त। शुद्धान्ते दुर्लभम् (तत्पुरुष)।

यहाँ पर तात्स्य्यात लक्षणों के द्वारा शुद्धान्त का अर्थ राजा की स्त्रियाँ हैं। कवि यहाँ कृत्रिम सौन्दर्य की अपेक्षा प्राकृतिक सौन्दर्य की विशिष्टता की ओर संकेत कर रहा है। यहाँ शकुन्तला रूप विशेष के प्रस्तुत होने पर उसका सामान्य कथन करने के कारण अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार है। पूर्वाद्ध तथा परार्द्ध में साक्षात् सम्बन्ध नहीं है परन्तु दोनों की समाप्ति उपमा में हो रही है। अतः निर्दशना अलंकार है। प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति। आर्या छन्द |

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भास का काल निर्धारण कीजिये।
  2. प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  4. प्रश्न- अश्वघोष के जीवन परिचय का वर्णन कीजिए।
  5. प्रश्न- अश्वघोष के व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष की कृतियों का उल्लेख कीजिए।
  7. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के काव्य की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  8. प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
  9. प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य कला की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- "कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते" इस कथन की विस्तृत विवेचना कीजिए।
  11. प्रश्न- महाकवि भट्ट नारायण का परिचय देकर वेणी संहार नाटक की समीक्षा कीजिए।
  12. प्रश्न- भट्टनारायण की नाट्यशास्त्रीय समीक्षा कीजिए।
  13. प्रश्न- भट्टनारायण की शैली पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
  14. प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त के जीवन काल की विस्तृत समीक्षा कीजिए।
  15. प्रश्न- महाकवि भास के नाटकों के नाम बताइए।
  16. प्रश्न- भास को अग्नि का मित्र क्यों कहते हैं?
  17. प्रश्न- 'भासो हास:' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
  18. प्रश्न- भास संस्कृत में प्रथम एकांकी नाटक लेखक हैं?
  19. प्रश्न- क्या भास ने 'पताका-स्थानक' का सुन्दर प्रयोग किया है?
  20. प्रश्न- भास के द्वारा रचित नाटकों में, रचनाकार के रूप में क्या मतभेद है?
  21. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के चित्रण में पुण्य का निरूपण कीजिए।
  22. प्रश्न- अश्वघोष की अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
  23. प्रश्न- अश्वघोष के स्थितिकाल की विवेचना कीजिए।
  24. प्रश्न- अश्वघोष महावैयाकरण थे - उनके काव्य के आधार पर सिद्ध कीजिए।
  25. प्रश्न- 'अश्वघोष की रचनाओं में काव्य और दर्शन का समन्वय है' इस कथन की समीक्षा कीजिए।
  26. प्रश्न- 'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- भवभूति की रचनाओं के नाम बताइए।
  28. प्रश्न- भवभूति का सबसे प्रिय छन्द कौन-सा है?
  29. प्रश्न- उत्तररामचरित के रचयिता का नाम भवभूति क्यों पड़ा?
  30. प्रश्न- 'उत्तरेरामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  31. प्रश्न- महाकवि भवभूति के प्रकृति-चित्रण पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- वेणीसंहार नाटक के रचयिता कौन हैं?
  33. प्रश्न- भट्टनारायण कृत वेणीसंहार नाटक का प्रमुख रस कौन-सा है?
  34. प्रश्न- क्या अभिनय की दृष्टि से वेणीसंहार सफल नाटक है?
  35. प्रश्न- भट्टनारायण की जाति एवं पाण्डित्य पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  36. प्रश्न- भट्टनारायण एवं वेणीसंहार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  37. प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  38. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का रचयिता कौन है?
  39. प्रश्न- विखाखदत्त के नाटक का नाम 'मुद्राराक्षस' क्यों पड़ा?
  40. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का नायक कौन है?
  41. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटकीय विधान की दृष्टि से सफल है या नहीं?
  42. प्रश्न- मुद्राराक्षस में कुल कितने अंक हैं?
  43. प्रश्न- निम्नलिखित पद्यों का सप्रसंग हिन्दी अनुवाद कीजिए तथा टिप्पणी लिखिए -
  44. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
  45. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए।
  46. प्रश्न- "वैदर्भी कालिदास की रसपेशलता का प्राण है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  47. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के नाम का स्पष्टीकरण करते हुए उसकी सार्थकता सिद्ध कीजिए।
  48. प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य की सर्थकता सिद्ध कीजिए।
  49. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् को लक्ष्यकर महाकवि कालिदास की शैली का निरूपण कीजिए।
  50. प्रश्न- महाकवि कालिदास के स्थितिकाल पर प्रकाश डालिए।
  51. प्रश्न- 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के नाम की व्युत्पत्ति बतलाइये।
  52. प्रश्न- 'वैदर्भी रीति सन्दर्भे कालिदासो विशिष्यते। इस कथन की दृष्टि से कालिदास के रचना वैशिष्टय पर प्रकाश डालिए।
  53. अध्याय - 3 अभिज्ञानशाकुन्तलम (अंक 3 से 4) अनुवाद तथा टिप्पणी
  54. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
  55. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए -
  56. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के प्रधान नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  57. प्रश्न- शकुन्तला के चरित्र-चित्रण में महाकवि ने अपनी कल्पना शक्ति का सदुपयोग किया है
  58. प्रश्न- प्रियम्वदा और अनसूया के चरित्र की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए।
  59. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् में चित्रित विदूषक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  60. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् की मूलकथा वस्तु के स्रोत पर प्रकाश डालते हुए उसमें कवि के द्वारा किये गये परिवर्तनों की समीक्षा कीजिए।
  61. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रधान रस की सोदाहरण मीमांसा कीजिए।
  62. प्रश्न- महाकवि कालिदास के प्रकृति चित्रण की समीक्षा शाकुन्तलम् के आलोक में कीजिए।
  63. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- शकुन्तला के सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  65. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् का कथासार लिखिए।
  66. प्रश्न- 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' इस उक्ति के अनुसार 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की रम्यता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
  67. अध्याय - 4 स्वप्नवासवदत्तम् (प्रथम अंक) अनुवाद एवं व्याख्या भाग
  68. प्रश्न- भाषा का काल निर्धारण कीजिये।
  69. प्रश्न- नाटक किसे कहते हैं? विस्तारपूर्वक बताइये।
  70. प्रश्न- नाटकों की उत्पत्ति एवं विकास क्रम पर टिप्पणी लिखिये।
  71. प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
  72. प्रश्न- 'स्वप्नवासवदत्तम्' नाटक की साहित्यिक समीक्षा कीजिए।
  73. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर भास की भाषा शैली का वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के अनुसार प्रकृति का वर्णन कीजिए।
  75. प्रश्न- महाराज उद्यन का चरित्र चित्रण कीजिए।
  76. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् नाटक की नायिका कौन है?
  77. प्रश्न- राजा उदयन किस कोटि के नायक हैं?
  78. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर पद्मावती की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  79. प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  80. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के प्रथम अंक का सार संक्षेप में लिखिए।
  81. प्रश्न- यौगन्धरायण का वासवदत्ता को उदयन से छिपाने का क्या कारण था? स्पष्ट कीजिए।
  82. प्रश्न- 'काले-काले छिद्यन्ते रुह्यते च' उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  83. प्रश्न- "दुःख न्यासस्य रक्षणम्" का क्या तात्पर्य है?
  84. प्रश्न- निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए : -
  85. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिये (रूपसिद्धि सामान्य परिचय अजन्तप्रकरण) -
  86. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिये।
  87. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (अजन्तप्रकरण - स्त्रीलिङ्ग - रमा, सर्वा, मति। नपुंसकलिङ्ग - ज्ञान, वारि।)
  88. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
  89. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्त प्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - I - पुल्लिंग इदम् राजन्, तद्, अस्मद्, युष्मद्, किम् )।
  90. प्रश्न- निम्नलिखित रूपों की सिद्धि कीजिए -
  91. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्तप्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - II - स्त्रीलिंग - किम्, अप्, इदम्) ।
  93. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूप सिद्धि कीजिए - (पहले किम् की रूपमाला रखें)

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book